थिसुर का गुरुवायुर मंदीर – साक्षात भुलोक का वैकुंठ
केरल मे बहोत सारे हिंदु मंदीर है मगर उसमे ज्यादातर पुजे जानेवाले भगवान श्री हरी विष्णु ही है, श्री विष्णु का आठवा अवतार यानी की श्री कृष्ण ! कोचीन से करीब थिसुर जिल्हे मे स्थित श्रीकृष्ण का गुरुवायुर मंदीर तो अवश्य देखने लायक है ! इस मंदीर को भुलोक का वैकुंठ कहा जाता है ! इस मंदीर मे बसी श्रीकृष्ण की चतुर्भुज मुर्ती तो नजर लग जाये ऐसी ही है ! पांचजन्य शंख, सुदर्शन चक्रधारी, कौमुदकी मतलब कमलधारी और गलेमे तुलसीमाला, ये मुर्ती वैसी ही है जैसे श्री कृष्ण वासुदेव देवकी को नजर आये थे ऐसा कहा जाता है ! इस जगह को दक्षिण की द्वारका भी कहा जाता है ! यहा श्री कृष्ण भगवान अनेक नामो से जाने जाते है, जैसे की कन्नन, उन्नीकन्नन, बाळकृष्ण, गुरूवायुरप्पन ! इस मंदीर मे पुजाअर्जा आदी शंकराचार्य के कहे मुताबिक होती थी मगर बाद मे इसकेलिये तांत्रिक नियम बनाये गये ! इस मंदीर मे पुजा का मान नंबुद्रीपाद पुजारीओंके पास है !
श्रीहरी भक्तोंका ये प्रमुख श्रद्धास्थान है मगर फिर भी पुज्य माने गये १०८ कृष्ण मंदीरो मे इसकी गणना नही होती ! ऐसा कहा जाता है की ये मंदीर पांच हजार साल पुराना है ! मगर इस जगह का जिक्र १४ वे सदीसे गुरुवायुर नाम से होता है ! ये मुख्य मंदीर १६३८ मे फिर से बंधवाया गया इसके सबुत मौजुद है ! १७१६ मे डच लोगोने इस मंदीर को लुटा था ! १७४७ मे हैदर अली ने भी इस मंदीर पर आक्रमण किया था मगर मंदीर को कोई शती ना पहुचे इसलिये उसको १० हजार फनाम दिये गये और मंदीर बचाया गया ! १७८९ मे टिपु सुल्तान ने मलबार पे हमला किया तब मुर्तीयोंको कोई शती ना पहुचे इसलिये उनको वहासे हटाया गया ! मंदीर को आग लगी थी तब बडे जोरोंकी बरसात आयी और आग अपने आप बुझ गयी ऐसा भी कहा जाता है !
मुख्य मुर्ती १७९२ मे पुन्हा स्थापित की गयी ! इस मंदीर के पिछे की कहानी बडी रोचक है ! भगवान शंकर बहोत सालोंसे श्री विष्णु की कृपा के लिये तालाब के किनारे तपश्चर्या कर रहे थे ! इसलिये इस तालाब को रुद्रतिर्थम नाम से जाना जाता है ! उसके बाद फिर उसी जगह पे तत्कालीन राजा राणी और उनके दस पुत्रोने मिलकर तपस्या की तब भोलेनाथ शंकर जी ने उन्हे विष्णुस्तुती करने वाला स्त्रोत्र उनको प्रदान किया ! पुजा के लिये दी गयी मुर्ती की श्री विष्णुने खुद वैकुठ मे पुजा की और फिर ब्रम्हाजी मो सौप दी ! फिर ब्रम्हाजी ने वह मुर्ती राजा को दी ऐसी कहावत है ! दुसरी कहावत ऐसी है जब द्वारका डुब गयी तब ये मुर्ती समुदर के लहरोपे तैरते हुए यहा आयी ! उद्धव नाम के शिष्य ने ये मुर्ती निकालकर ब्रम्हाजी को सौप दी और ब्रम्हाजी को उचित स्थान पे स्थापित करने को कहा ! ब्रम्हदेव जब वायु के सहारे हवा मे ले जा रहे थे तब ये जगह उनको दिखी ! जहा शिव पार्वती नृत्य कर रहे थे वहा इस मुर्ती को स्थापित कर दिया ! ब्रम्हदेव याने देवो के गुरु और वायुर याने हवा इसलिये ये गुरुवायुर कहलाता है !
ऐसा कहा जाता है जिस पत्थर से ये मुर्ती बनायी गयी है उसमे लोह तथा दवाई के गुण मौजुद है ! सुबह तीन बजे पुजारी इस मुर्ती की पुजा करते है, पुजा के समय मुर्ती के स्नान से जो तीर्थ निकलता है उसे महत्वपुर्ण माना जाता है ! ये तीर्थ लेने के लिये भक्त जण सुबह ही भीड लगाते है ! मंदीर के नियम बडे कठोर है मंदीर मे प्रवेश के लिये मनुष्य को लुंगी और औरतो को साडी परकर और चोली यही पोषाक पहनना पडता है !
मंदीर का परिसर काफी बडा है ! खास कर केरल के कौलारु ( छत ) साचे का बडा प्रयोग किया गया है और दोनो तरफ से स्तंभ की बडी कतारे है ! मुख्य मंदीर की जगह बहोत अंदर है इसलिये बाहर से ही दर्शन लेना पडता है ! अंदरुनी मंदीर की जगह बिजली के दिये इस्तेमाल नही किये जाते इसलिये वहा बडी बडी समई के रोशनी मे मुर्ती देखने के लिये बहोत भीड लगती है ! प्रसाद लेना हो तो अपने ख्वाहीश के हिसाब से पैसे देकर ले सकते है ! प्रसाद मे गेहु की खीर और गुड होता है !
१९७० साल मे ३० नवंबर को इस मंदीर को फिर से एकबार महाभयानक आग लगी ! एकादशी दिन के लिये यहा विद्युत रोषणाई की गयी थी ! उस वक्त शॉर्ट सर्कीट की वजह से आग लगी और तेजी से फैलती चली गयी ! मगर सुबह जब पुजारी पुजा करने के लिये उठे तो उनको ये बात समझ आयी और फिर फौरन आग पर काबु पाया गया ! मगर मुख्य मंदीर और उस परिसर के मंदीरोंको कोइ हताहत नही हुयी ऐसा कहा गया !
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