होली पूर्णिमा के दिन होली जलाने की परंपरा भारत मे सभी जगहोंपर मनाई जाती है मगर इसकी शुरुवात बिहार के पूर्णिया जिले के सिकलीगढ धरहरा गांव से हुई थी इसके संदर्भ श्रुति उसी तरह पुराणो मे भी पाये जाते है ! आज भी बडी तादाद मे मतलब ५० हजार से भी ज्यादा श्रद्धालु यहाँ आके राख और मिट्टी से होली खेलते है !
पुराण के अनुसार श्री विष्णु का चौथा अवतार नरसिंह धराहर मे हूआ था ! सिकलीगढ ये हिरण्यकश्यपू का किला था ! हिरण्यकश्यपू का लडका प्रल्हाद विष्णुका भक्त था इस वजह से हिरण्यकश्यपू हमेशा क्रोधीत रहता था ! जब प्रल्हाद से पुछा गया तेरा भगवान इस स्तंभ मे है क्या ? तो उसने हा कहकर जवाब दिया और फिर हिरण्यकश्यपू ने लाथ मारकर उस स्तंभ को गिरा दिया और उसमेंसे अक्रालविक्राल नरसिंह बाहर आ गया ! फिर उसने हिरण्यकश्यपू का वध कर दिया ये कहानी हम जानते है ! जिस स्तंभ से नरसिंह बाहर आया वह माणिक्य स्तंभ आज भी यहाँ देखने को मिलता है ! १२ फिट चौडा और ६५ अंश मे झुका हुआ यह प्रचंड स्तंभ है !
धराहर मे ही होलिका प्रल्हाद को लेकर अग्नी मे बैठी थी, जिसमे होलिका पुरी की पुरी जल गयी मगर प्रल्हाद सही सलामत बाहर आ गया ! तबसे यहाँ होलिका दहन की परंपरा निभायी जाती है ! उसके बाद इसी राख और मिट्टी को मिलाकर लोगोने होली खेली मतलब राख और मिट्टी एकदुसरेंको लगायी और उसमेंसे यह परंपरा शुरु हो गयी ! गोरखपुर के गीता प्रेस मे भी भागवत पुराण मे भी इस माणिक स्तंभ का जीक्र किया गया है !
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